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आश्रम में आना
तुम कहते हो कि तुम अपने पुराने जीवन में लौट गये हो और कुछ समय के लिए जिस आध्यात्मिक चेतना में रहते थे उससे गिर गये हो । और तुमने पूछा है कि क्या यह इस तथ्य के कारण हैं कि श्रीअरविन्द ने और मैंने संरक्षण और अपनी सहायता को वापिस ले लिया है क्योंकि तुम अपना वचन निबाहने में असमर्थ रहे ।
यह सोचना गलत है कि हमने किसी भी चीज को वापिस लें लिया है । हमारी सहायता और हमारा संरक्षण हमेशा की तरह तुम्हारे साथ हैं, लेकिन यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि हमारी सहायता को अनुभव करने और अपना वचन पालने की अक्षमता, दोनों एक हीं कारण के युगपत् प्रभाव हैं ।
याद करो, जब तुम अपने परिवार को लेने के लिए कलकत्ता गये थे तो मैंने लिखा था : अपने और भगवान् के बीच किसी भी प्रभाव को न आने दो । तुमने इस चेतावनी की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया : तुमने अपने और अपने आध्यात्मिक जीवन के बीच एक प्रभाव को ज़ोरों से हस्तक्षेप करने दिया; इससे तुम्हारी भक्ति और तुम्हारी श्रद्धा गंभीर रूप से हिल गयीं । परिणामस्वरूप तुम डर गये और तुम्हें भागवत काम के लिए अपने को समर्पित करने मे वही आनन्द नहीं मिला, और साथ हो स्वाभाविक था कि तुम अपनी सामान्य चेतना और पुराने जीवन में जा गिरे ।
फिर भी, यह बिलकुल ठीक है कि तुम अपने- आपको हतोत्साह नहीं होने दे रहे । चाहे कैसा भी पतन हो, केवल फिर से उठ खड़े होना ही सम्भव नहीं है बल्कि और ज्यादा ऊंचा उठना और लक्ष्य तक पहुंचना भी सम्भव है । केवल प्रबल अभीप्सा और निरन्तर संकल्प की जरूरत है । तुम्हें यह दृढ़ निश्चय करना चाहिये कि तुम्हारे ' भागवत सिद्धि ' की ओर आरोहण में कोई भी चीज हस्तक्षेप न करे । और तब सफलता निश्चित है ।
हमारी अमोघ सहायता और संरक्षण के बारे में आश्वस्त रहो ।
३ फरवरी, १९३१
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१३८ माताजी मेरी भौतिक मां यहां आना ने अगर वह मेरे लिए आना चाहती ने तो यह मेरे लिए और उसके भी अच्छा न होगा अगर उसके अन्दर भगवान् के इच्छा हो तो और बात है!
माताजी क्या उसमें सच्ची इच्छा है ? आप इस बारे मे क्या सोचते है ?
मुझे सचमुच यह लगता हे कि अगर तुम यहां न होते, तो वह यहां आने का सपना भी न देखती । वह मुख्य रूप से तुम्हें ही देखना चाहती है, और तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो कि यह न तुम्हारे लिए अच्छा है, न उसके लिए । इसलिए ज्यादा अच्छा यही हे कि वह न आये ।
मेरे आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।
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वह योग करने का प्रयास कर सकतीं हे, लेकिन उसका उद्देश्य शुद्ध होना चाहिये, क्योंकि अगर वह यहां आकर तुम्हारे साथ रहने के लिए योग करने का निश्चय करती है, तो उसके यहां आने से कोई लाभ न होगा ।
२५ जून, १९३२
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मैं चकरा गया हूं !मेरा हृदय आपकी ओर खिंचता है और सें वापिस आना चाहता हूं ! लोइकन कुछ चीजें मुझे यहां रोते हुए हैं और मुझे लगता हे कि अगर मैं अभी लोटे भी आऊं तो धी वे मुझे खींचती रहेगी मुझे क्या करना चाहिये? लोइकन कृपया यह जान लीजिये कि चाहे मैं अभी आऊं या न आऊं मैं कभी आपसे सम्बन्ध तोड़ नहीं सकता ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप मुझे छोड़ न दें !
मेरे प्रिय बालक, आज के आशीर्वाद... । अभी अभी तुम्हारा २१ तारीख का पत्र पढ़ा वह (लिखित शब्दों के बिना) तीन दिन पहले सीधा मेरे पास आया था, शायद तब जब तुम उसे लिख रहे थे, और मेरा मौन उत्तर
१३९ सुस्पष्ट था : तब तक वहां बने रहो जब तक तुम्हारे लिए यहां रहने की आवश्यकता इतनी अनिवार्य न हो उठे कि और सभी चीजें तुम्हारे लिए अपना मूल्य खो दें । अब भी मेरा उत्तर यही है । मैं तुम्हें यही आश्वासन देती हूं कि हम तुम्हें छोड़ नहीं रहे और तुम्हें हमेशा हमारी सहायता और संरक्षण प्राप्त रहेंगे ।
२४ अप्रैल, १९३९
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मैं ' क ' पर अपनी कृपा की वर्षा करने को बिलकुल तैयार हू, लेकिन मुझे उसके लिए यह ठीक नहीं लगता कि वह यहां आये । मुझे नहीं लगता कि आधे मिनट का '' दर्शन '' इन आदतों को बदल सकता है । हमें इनके बारे में पहले ही कटु अनुभव हो चुके हैं, वे चैत्य उद्घाटन का भी प्रतिरोध करते हैं । पहले उसके अन्दर बदलने के लिए सच्ची इच्छा होनी चाहिये।
हमारे प्रेम और आशीर्वाद ।
१६ जनवरी, १९४०
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तुम्हारा पत्र अभी- अभी मिला और पढ़ा । यह रहा मेरा उत्तर :
तुम्हारा स्वभाव ऐसा है कि तुम हमेशा वहां होना चाहोगे जहां तुम नहीं हो । आश्रम जीवन के लिए तुम्हारा आकर्षण इस कारण होता है क्योंकि तुम यहां से दूर हो । जैसे ही तुम लौटकर यहां आगे फिर से बेचैनी और भाग जाने की इच्छा जोर मारेगी । जैसा कि रामकृष्ण ने कहा था, गुरु से बहुत दूर रहना परंतु हमेशा उनके बारे में सोचते रहना, गुरु के पास रहना और केवल संसार के भोग-विलास के बारे में सोचने से ज्यादा अच्छा हैं ।
जब तुम इस स्थिति से ऊपर उठ जाओगे और अपने अन्दर चैत्य पुरुष और भगवान् के लिए उसकी सच्ची और निरन्तर ललक को पा लोग, तब यहां लौट आने और हमेशा के लिए यहां बस जाने का समय होगा ।
१० जून, १९४९
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१४० हमें नहीं लगता कि तुम्हारे आश्रम में स्थायी तौर पर रहने का समय आ गया है । तुम्हारे लिए सबसे अच्छा यही है कि समय-समय पर दर्शन के लिए आओ और अपने- आपको तैयार करो । जब काफी तैयारी हो जाये तो तुम स्थायी निवास के लिए आ सकते हो ।
तुम बिछुआ रख सकते हो कि हमारी सहायता, हमारा प्रेम और हमारे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।
२४ फरवरी, १९४१
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श्रीअरविन्द ने मुझे तुमसे यह कहने के लिए कहा है कि तुम्हारे लिए अभी तुरंत आश्रम मे आ जाना अच्छा नहीं है । यह योग कठिन है और बिना तैयारी उसमें डुबकी लगाना उसे और भी कठिन बना देगा । तुम्हें पहले '' लाइफ डिवाइन '' (दिव्य जीवन) पढ़नी और समझनी चाहिये और इस बात का विकास कर लेना चाहिये कि तुम्हारा निश्चय ठोस आधार पर है और तुम्हारे मन और प्राण एक नये आन्तरिक जीवन में प्रवेश करने के लिए तैयार हैं ।
हमारी सहायता और हमारे आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेंगे ।
२४ फरवरी, १९४१
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यह सच है के मैंने ' क ' को क्षमा कर दिया है, क्योंकि ' भागवत कृपा ' हर बात को क्षमा कर देती है, लेकिन साथ ही यह भी सच हैं कि ' क ' की स्त्री और बच्चों के यहां आने का प्रश्न ही नहीं उठता इसके बहुत-से कारण हैं जिनमें एक हो काफी है-वह यह कि बुरे उदाहरण से बढ़कर संक्रामक और कोई चीज नहीं है और मैं ऐसी अप्रिय घटनाओं को दोहराने की इजाजत नहीं दे सकती ।
६ जून, १९५४ *
तुमने एक फ की हैं और वही सारी तकलीफ का कारण है । जाने से
१४१ पहले तुम्हें मेरे साथ खुलकर बात करनी चाहिये थी कि तुम्हें इस जवान लड़की को यहां लाकर रखने के लिए उसके साथ शादी करनी पड़ेगी । मैं तुम्हें इस अप्रिय आवश्यकता से बचने की सलाह दे सकतीं थी, तब तुम्हारी शादी का समाचार एक धक्के की तरह से न आता और ऐसी लोकनिन्दा का कारण न होता ।
अब, सबसे अच्छा यही है कि ' क ' के रोग-मुक्त होने तक प्रतीक्षा करो और उसे अपने साहा ले आओ यह कमसेकम आश्रमवासियों के लिए तुम्हारी सचाई का एक प्रमाण होगा ।
हमने छोटे बच्चे के साथ ' ख ' के ठहरने के लिए जगह तैयार कर दी है, और तुम अलग रहोगे ।
तुम्हें इस अनुभव से यह सीखना चाहिये कि साहसपूर्ण और सीधी स्पष्टवादिता हमेशा कठिनाइयों का सामना करने का सबसे अच्छा उपाय होती है ।
५ फरवरी, १९५५
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भगवान् पर तुम्हारी श्रद्धा कहां है ? भगवान् पर श्रद्धा रखते हुए तुम्हें खुश होना चाहिये कि ' क ' को आन्तरिक पुकार हुई है और उसने दिव्य जीवन अपनाने का निश्चय किया है; तुम्हें ' भागवत कृपा ' के इस संकेत से खुश होना चाहिये ओर इसके लिए कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये ।
सामाजिक कठिनाइयों का चुपचाप समता और प्रसन्नता के साथ सामना करो; तब तुम जानोगे कि मेरा प्रेम और मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साध हैं ।
२० फरवरी, १९५५
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मेरे प्यारे बच्चो,
मुझे तुम्हारा पत्र मिल गया है और मैं तुम्हारे निश्चय की सराहना करती हू । लेकिन तुम्हें आश्रम में रहते हुए जो कठिनाइयां हो रही थीं, उन्हें दृष्टि में रखते हुए, मुझे तुम्हारे लिए यह ज्यादा उपयुक्त लगता है कि तुम अभी कुछ समय ठहरो और देखो कि क्या तुम आश्रम में रहने के लिए
१४२ अपने निश्चय पर टिक सकते हो । अगर तुम यहां नहीं रह सकते तो अभी तुम्हारे लिए हिन्दुस्तानी से चले जाना ज्यादा अच्छा होगा । अगर कुछ समय के बाद तुम्हें लगे कि तुम उस निश्चय को निभा सकते हो, तो फिर से मुझे लीखों ओर तब पर्यटक-पत्र (टूरिस्ट वीज़ा) पर नहीं, छात्र या अध्यापक के वीज़ा पर आओ ।
अगर उसमें सत्य होगा तो वह कभी नहीं मुरझायेगा, परिस्थितियां चाहे कितनी भी विरोधी क्यों न हों ।
'कृपा ' के आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहें ।
३ जून, १९५७
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मुझे खेद है, परंतु अभी के लिए हम इस स्थिति मे नहीं हैं कि आश्रमवासियों की संख्या बढ़ाये । जितने हैं उनके साथ ही व्यवस्था कर पाना मुश्किल हो रहा है-वे मुट्ठी- भर लोग अपवाद हो सकते हैं जो साधना की सच्ची पुकार के साथ आयें ।
१ अगस्त, १९५९
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(ऐसी व्यक्ति के नाम जो अपने परिवार को आश्रम मे लाना चाहता था)
यह बहुत अच्छा है-मैं सारी दुनिया को '' आश्रय '' देना चाहूंगी, या कम- से-कम उन सबको जो ज्यादा अच्छे जीवन के लिए अभीप्सा करते हैं । लेकिन हमारे पास जगह और साधनों की कमी हैं ।
नगर को विकसित होने दो, साधनों को बढ़ने दो, तब हमारा आतिथ्य भी बढ़ जायेगा ।
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माताजी
क्या मेरे बच्चे, जिनके फटे आप पहले देख चुकी है, अन्त
१४३ यहां आ सकेंगे ? क्या उन्हें आपका संरक्षण मिल सकता है ?
निश्चय हीं तीनों के साथ मेरे आशीर्वाद हैं । रही बात यहां आने की, तो यह निश्चित नहीं है कि बड़े दो यहां आना चाहेंगे-उनकी अपनी इच्छा जरूरी है । तीसरी अभी बहुत छोटी हैं, उसके बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता-परन्तु वह है होनहार ।
२४ मार्च,१९६६
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तुम पूछते हों कि क्या तुम और कुछ समय बाहर रहकर भी मेरे साथ वही सम्बन्ध बनाये रख सकोगे । हां तो, निश्चय ही, यह समय की अवधि पर निर्भर है ।
क्योंकि धीरे-धीरे तुम यह मूल जाते हो कि तुम्हारे अन्दर एक सच्ची सत्ता है (या थी) और तुम '' विचारशील '', '' कुशल '' और '' समझदार '' प्राणी होने के इतने अभ्यस्त हो जाओगे कि तुम कुछ और होने का सपना तक न देखोगे ।
जो हो, स्वयं तुम्हें निश्चय करना है, तुम्हारे लिए न तो तुम्हारे मां- बाप निश्चय कर सकते हैं और न मैं । तुम्हारी नियति के बारे में निश्चय करने का अधिकार उन्हें मुझसे ज्यादा नहीं है । मैं केवल एक बात कह सकती हू, जब कभी तुम विचारशील, कुशल और समझदार प्राणी होने से ऊब जाओ, तो वहां से भाग निकले, तुरंत, बिना किसी हिचकिचाहट के, और यहां लौट आओ । मैं तुम्हें तुम्हारी सच्ची सत्ता लौटा दूंगी ।
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यह वास्तव में अनिवार्य हैं कि तुम यहां रहने योग्य बनो इससे पहले तुम्हारे रूवभाव में कोई चीज मौलिक रूप से बदले । तुम आध्यात्मिक जीवन जिन के लिए अत्यधिक अहं-केंद्रित हो और यही इस अनर्थ और इसके द्वारा तुम पर आयी पीड़ा का कारण हैं, और यह सारी चीज का स्वाभाविक परिणाम हैं । वस्तुत:, यह ज्यादा अच्छा होगा कि तुम आश्रम- जीवन को अपने लिए स्वार्थपूर्ण जीवन का एक बहाना बनाकर रहने की
१४४ जगह अभी बाहर जाकर साधारण जीवन का सामना करो तथा औरों के साथ और औरों के लिए जीना सीखो ।
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हर एक को अपने चुने हुए मार्ग पर चलने का अधिकार है, परंतु वह ठीक स्थान पर होना चाहिये, और स्पष्ट है कि तुम्हारे चुने हुए मार्ग पर चलने के लिए आश्रम उपयुक्त स्थान नहीं है ।
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